उत्तराखंड

हिमालय पुत्र नैन सिंह रावत ने जब पहाड़ों में नई राहों की खोज की

हिमालय पुत्र  नैन सिंह रावत ने जब पहाड़ों में नई राहों की खोज की , गूगल हर खास अवसर पर डूडल तैयार करता है. लेकिन शनिवार को जब डूडल पर सबकी नजर गई तो किसी को समझ नहीं आया कि पहाड़ों पर खड़े शख्स की आकृति किसकी है.

देहारदून : गूगल हर खास अवसर पर डूडल तैयार करता है. लेकिन पिछले शनिवार को जब गूगल डूडल पर सबकी नजर गई तो किसी को समझ नहीं आया कि पहाड़ों पर खड़े शख्स की आकृति किसकी है. आकृति में दिख रहे व्यक्ति नैन सिंह रावत हैं. ये वो भारतीय हैं, जिनका नाम अंग्रेजी हुकुमत के लोग भी सम्मान के साथ लेते थे. इन्होंने बिना किसी आधुनिक उपकरण के पूरे तिब्बत का नक्शा तैयार किया था. ये वो समय था जब तिब्बत में किसी भी विदेशी के आने पर मनाही थी. यदि वहां छिपकर पहुंच भी जाएं लेकिन बाद में पकड़ में आ जाएं तो इसकी सजा सिर्फ मौत ही होती थी. ऐसी स्थिति के बावजूद नैन सिंह रावत न सिर्फ इस फॉरबिडन लैंड में पहुंचे बल्कि सिर्फ रस्सी, कंपस, थर्मामीटर और कंठी के जरिए पूरा तिब्बत नाप कर आ गए. तो चलिए जानते हैं एक्सप्लोरर नैन सिंह रावत के बारे में खास बातें.

19वीं शताब्दी में अंग्रेज़ भारत का नक्शा तैयार कर रहे थे और लगभग पूरे भारत का नक्शा बना चुके थे. वे आगे बढ़ते हुए तिब्बत का नक्शा चाहते थे, लेकिन फॉरबिडन लैंड कहे जाने वाली इस जगह पर किसी भी विदेशी के जाने पर मनाही थी. ऐसे में किसी भारतीय को ही वहां भेजने की योजना बनाई गई. इसके लिए लोगों खोज शुरू हुई. आखिरकार 1863 में कैप्टन माउंटगुमरी को दो ऐसे लोग मिल ही गए. ये थे उत्तराखंड निवासी 33 साल के पंडित नैन सिंह और उनके चचेरे भाई मानी सिंह दोनों भाइयों को ट्रेनिंग के लिए देहारदून लाया गया. उस समय दिशा और दूरी नापने के यंत्र काफी बड़े हुआ करते थे. लेकिन उन्हें तिब्बत तक ले जाना खतरनाक था. क्योंकि इन यंत्रों के कारण पंडित नैन सिंह और मानी सिंह दोनों ही पकड़े जाते. ऐसा होता तो उन्हें मौत की सजा पाने से कोई नहीं रोक सकता था. ऐसे में तय किया गया कि दिशा नापने के लिए छोटा कंपास और तापमान नापने के लिए थर्मामीटर इन भाइयों को सौंपा जाएगा.

दूरी नापने के लिए नैन सिंह के पैरों में 33.5 इंच की रस्सी बांधी गई ताकि उनके कदम एक निश्चित दूरी तक ही पड़ें. हिंदुओं की 108 की कंठी के बजाय उन्होंने अपेन हाथों में जो माला पकड़ी वह 100 मनकों की थी ताकि गिनती आसान हो सके. 1863 में दोनों भाइयों ने अलग-अलग राह पकड़ी. नैन सिंह रावत काठमांडू के रास्ते और मानी सिंह कश्मीर के रास्ते तिब्बत के लिए निकले. हालांकि, मानी सिंह इसमें असफल रहे और वापस आ गए, लेकिन पंडित नैन सिंह रावत ने अपनी यात्रा जारी रखी. नैन सिंह सफलतापूर्वक तिब्बत पहुंचे और पहचान छिपाने के लिए बौद्ध भिक्षु के रूप में वहां घुल-मिल गए. वह दिन में शहर में टहलते और रात में किसी ऊंचे स्थान से तारों की गणना करते. इन गणनाओं को वे कविता के रूप में याद रखते. नैन सिंह रावत ने ही सबसे पहले दुनिया को ये बताया कि लहासा की समुद्र तल से ऊंचाई कितनी है, उसके अक्षांश और देशांतर क्या है. यही नहीं उन्होंने ब्रहमपुत्र नदी के साथ लगभग 800 किलोमीटर पैदल यात्रा की और दुनिया को बताया कि स्वांग पो और ब्रह्मपुत्र एक ही नदी है. उन्होंने दुनिया को तिब्बत के कई अनदेखे और अनसुने रहस्यों से रूबरू कराया.

1866 में नैन सिंह यादव मानसरोवर के रास्ते भारत वापस आ गए. साल 1867-68 में वह उत्तराखण्ड में चमोली जिले के माणा पास से होते हुए तिब्बत के थोक जालूंग गए, जहां सोने की खदानें थीं. उनकी तीसरी बड़ी यात्रा साल 1873 -74 में की गई शिमला से लेह और यारकंद की थी. उनकी आखिरी और सबसे अहम यात्रा साल 1874-75 में हुई. जिसमें वे लद्दाख से लहासा गए और फिर वहां से असम पहुंचे. इस यात्रा में नैन सिंह रावत ऐसे इलाकों से गुजरे, जहां दुनिया का कोई आदमी नहीं पहुंचा था. पंडित नैन सिंह रावत के इस काम को ब्रिटिश राज में भी सराहा गया. अंग्रेजी सरकार ने 1877 में बरेली के पास 3 गांवों की जागीरदारी उन्हें उपहार स्वरूप दी. इसके अलावा उनके कामों को देखते हुए कम्पेनियन ऑफ द इंडियन एम्पायर का खिताब दिया गया.

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