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आए थे बेटा-बहू के पास, घुमा रहे कुत्ता

बैक्टीरियल इन्फेक्शन न हो, बहू नहीं आने देती बच्चों के पास
मंगतू बोड़ा को अब आ रहा गांव याद

गुणानंद जखमोला
मंगतू बोड़ा और कालिणी बोड़ी हमारे पड़ोस में रहते हैं। दोनों गांव से दो माह पूर्व आए थे। बेटा सरकारी अफसर है और बहू अंग्रेजी स्कूल में टीचर। दो बच्चे भी हैं जो स्कूल जाते हैं। पहले कोठी में एक नौकर व उसका परिवार रहता था। नौकर बाहर का काम करता था और उसकी पत्नी कोठी में खाना बनाने से लेकर मंगतू बोड़ा के बेटे के बेटा-बेटी को खिलाने से लेकर सुलाने का काम करती थी। इस बीच नौकर को कहीं और अच्छी पगार और रहने की सुविधा मिल गई तो वह पत्नी समेत मंगतू बोड़ा के बेटे के परिवार को इस तरह से छोड़ कर चला गया, जैसे सौतले पुत्र को।

मंगतू बोड़ा का अफसर बेटा मुरली पहले तो नौकर को धमकाने लगा कि छोड़ के मत जा, फिर गिड़गिड़ाया, लेकिन नौकर भला कहां ताव में आने वाला था। चला ही गया, ठीक वैसे ही जैसे देहरादून के अमीर घरों के बेटा-बेटी अपने मां-बाप को छोड़कर दिल्ली या विदेश चले जाते हैं। मुरली रोता-बिलखता रह गया। देहरादून है अमीरों का शहर। यहां सबकुछ मिल जाता है लेकिन अच्छे नौकर-नौकरानी नहीं। नौकरानियों के भाव कटरीना से भी ऊंचे हैं। ब्रेकफास्ट के वर्तन लंच पर और लंच के डिनर पर धुलते हैं। कई-कई घरों में काम करते हैं। ऐसे में मुरली की मुश्किलें बढ़ गईं।

नौकर न हों तो अफसर किस काम का। फिर मुरली की टीचर पत्नी वीणा ने साफ कर दिया था कि वह न तो घर का काम करेगी और न ही खाना बनाएगी। मुरली की अफसरी धरी रह गयी। बहुत सोचा फिर मां कालिणी देवी की याद हो आयी। कई साल हो गये, मां के हाथों का बने खाने की। झट से समाधान निकल आया। मां-बाप को बुला लेते हैं। मंगतू बोड़ा ने मना किया कि अचानक बेटा क्यों बुला रहा है, इतने वर्षों में एक-दो दिन रहकर भगा देता था। मंगतू बोड़ा को याद है कि किस तरह हाड-तोड़ मेहनत कर मुरली को लिखाया-पढ़ाया। उसकी पढ़ाई के लिए पुश्तैनी जमीन बेच दी। लेकिन अफसर बनते ही उसे अपने गंवार मां-बाप पर शर्म आने लगी। मंगतू बोड़ा ने दून आने से मना कर दिया, लेकिन मां तो मां होती है। पसीज गई बोली बेटा बुला रहा है तो चलते हैं। पहाड़ की कूड़ी पर एक बड़ा सा ताला लगा कर मंगतू बोड़ा और कालिणी बोड़ी पहुंच गये दून।

एक-दो दिन माहौल ठीक रहा। बेटा-बहू प्यार जताते रहे और फिर बेटे ने बता दी मजबूरी। मां अब कोठी में नौकरानी जैसा काम करती है और मंगतू सुबह शाम जर्मन शैपर्ड घुमाता है। बूढ़ी हडिृडयां शैपर्ड को कंट्रोल करने में घिस जाती हैं। बदन टूटने लगता है, पोता-पोती को प्यार करो तो बहू कहती है बरसात का मौसम है, बच्चों को छू लेंगे तो बैक्टीरियल इंफेक्शन हो सकता है क्योंकि मंगतू बोड़ा खांसता है। कालिणी बोड़ी का बुरा हाल है। बोड़ी दिन भर काम में खटती है और मौका मिलते ही बहू ताना मारती है। मंगतू बोडा को अब अपना पहाड़, अपना गांव, अपनी तिबरी और सूनी डंड्लि याद आने लगी है। बोड़ा ने ठान लिया है अब कुत्ता नहीं घुमाना। गांव जाना है। बोड़ी भी तैयार है। मौका मिलते ही दोनों शानदार कोठी को छोड़ अपनी झोपड़ीनुमा कोठरी में चले जाएंगे।

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