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सत्ता मिलते ही वीर चंद्रसिंह गढ़वाली नजर आते हैं कम्युनिस्ट..

उनके नाम पर वोट बटोरे, लेकिन उन्हें नहीं मिला इंसाफ..

गढ़वाल रेजीमेंट आज भी मानती है अपराधी, मौत होने पर भी नहीं दी सलामी..

उत्तराखंड:  वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की आज जयंती है। राज्य गठन के बाद उनके नाम की कई योजनाएं संचालित हैं। चुनाव के समय उनके नाम पर वोट भी बटोरे जाते हैं, लेकिन सत्ता मिलते ही वीर चंद्रसिंह गढ़वाली कम्युनिस्ट बन जाते हैं। भाजपा-कांग्रेस उन्हें राष्ट्र की विरासत से कहीं अधिक वोट बैंक का जरिया मानते हैं।

वो पेशावर कांड के नायक बने थे और आज भी हीरो हैं, लेकिन गढ़वाल रेजीमेंट सेंटर के रिकार्ड में वो आज भी अपराधी हैं। सब जानते हैं कि फौज में देश से बड़ी पलटन होती है। यही कारण है कि जब पेशावर कांड के नायक का निधन हुआ तो गढ़वाल राइफल्स ने उन्हें सलामी देने से इनकार कर दिया। सब जानते हैं कि वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की आर्थिक हालत कितनी खराब थी कि बैंक ने उनके घर पर कुर्की का नोटिस भी चस्पा दिया था। यदि हेमवती नंदन बहुगुणा उनकी मदद नहीं करते तो मासी सैंणीसेरा का उनका घर कुर्क हो जाता।

 

 

यदि हम उनको सच्चा सम्मान देना चाहते तो प्रदेश सरकार विधानसभा में उनको दोषमुक्त करने के लिए कोई प्रस्ताव लाती ताकि गढ़वाल रेजीमेंट की रिकार्ड बुक से उन पर अपराधी का ठप्पा हटाया जाता। देश की आजादी के 73 साल और राज्य गठन के 20 साल बाद भी उनको इंसाफ नहीं मिला। इसका मुझे दुख हैै। पेशावर कांड के नायक को भावभीनी श्रद्धांजलि।

23 अप्रैल 1930 को घटित हुआ था पेशावर कांड। यही वो दिन था जब दुनिया से एक वीर सैनिक का असली परिचय हुआ था। एक वीर सैनिक ने पेशावर में देश की आजादी के लिये लड़ने वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इनकार जो कर दिया था।

 

 

पेशावर कांड की बात करने से पहले इसकी पृष्ठभूमि जानना बेहद ज़रूरी है। वो दौर था जब देश में पूर्ण स्वराज को लेकर आंदोलन चल रहा था। गांधी जी ने 12 मार्च 1930 को डांडी मार्च शुरू किया था। इस बीच भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी दी जाने की चर्चाएं भी तेज थीं। पूरे राष्ट्र में इससे उबाल था। चंद्र सिंह गढ़वाली भी इनमें शामिल थे।

पेशावर में 23 अप्रैल 1930 को विशाल जुलूस निकला था। इसमें बच्चे, बूढ़े, जवान, महिलाएं सभी ने हिस्सा लिया था। अंग्रेजों का खून खौल रहा था। इसलिये 2/18 रायल गढ़वाल राइफल्स के सैनिकों को प्रदर्शनकारियों पर नियंत्रण पाने के लिये भेजा गया। इसकी एक टुकड़ी काबुली फाटक के पास निहत्थे सत्याग्रहियों के आगे खड़ी थी। अंग्रेज कमांडर रिकेट के आदेश पर इन सभी प्रदर्शनकारियों को घेर लिया गया और गढ़वाली सैनिकों को जुलूस को ति​तर-बितर करने के लिये कहा गया।

 

 

प्रदर्शनकारी नहीं हटे तो कमांडर का धैर्य जवाब दे गया और उसने आदेश दिया। गढ़वालीज ओपन फायर और फिर एक आवाज आई गढ़वाली सीज फायर। पूरी गढ़वाली बटालियन ने चन्द्र सिंह के आदेश का पालन किया, जिस पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। हालांकि, अंग्रेज सैनिकों ने बाद में पठानी आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसायी। उससे पहले गढ़वाली सैनिकों से उनके हथियार ले लिये गये।

चंद्र सिंह गढ़वाली सहित इन सैनिकों को नौकरी से निकाल दिया गया और उन्हें कड़ी सजा दी गयी लेकिन उन्होंने खुशी-खुशी इसे स्वीकार किया। बैरिस्टर मुकुंदी लाल के प्रयासों से इन सैनिकों को मृत्यु दंड की सजा नहीं मिली लेकिन उन्हें जेल जाना पड़ा था। इस दौरान चन्द्र सिंह गढ़वाली की सारी सम्पत्ति ज़ब्त कर ली गई।

 

 

गौर हो कि गांधी जी ने एक बार कहा था कि यदि उनके पास चंद्र सिंह गढ़वाली जैसे चार आदमी होते तो देश का कब का आजाद हो गया होता। चंद्र सिंह गढ़वाली बाद में कम्युनिस्ट हो गये और सिर्फ उनकी इस विचारधारा की वजह से देश ने इस अमर जवान को वह सम्मान नहीं दिया जिसके वह असली हकदार थे। एक अक्तूबर 1979 को भारत के महान सपूत ने लंबी बीमारी के बाद दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में आखिरी सांस ली थी।

चंद्र सिंह गढ़वाली का मूल नाम चंद्र सिंह भंडारी था। उन्होंने बाद में अपने नाम से गढ़वाली जोड़ा था। उनका जन्म 25 दिसंबर 1891 को पौड़ी गढ़वाल जिले की पट्टी चौथन के गांव रोनशेहरा के किसान परिवार में हुआ था। वीर चन्द्र सिंह के पूर्वज चौहान वंश के थे, जो मुरादाबाद में रहते थे लेकिन काफी समय पहले ही वह गढ़वाल की राजधानी चांदपुरगढ़ में आकर बस गये थे और यहां के थोकदारों की सेवा करने लगे थे। माता-पिता की इच्छा के विपरीत वह 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान लैंसडाउन में गढ़वाल राइफल्स में भ​र्ती हुए। भारतीय सेना के साथ उन्होंने 1915 में मित्र देशों की तरफ से प्रथम विश्व युद्ध में भी हिस्सा लिया।

 

 

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही 1917 में चन्द्र सिंह ने अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया। जिसमें अंग्रेजों की जीत हुई थी। 1918 में बगदाद की लड़ाई में भी हिस्सा लिया। प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद अंग्रेजों ने कई सैनिकों को निकाला और कइयों का पद कम कर दिया। चन्द्र सिंह को हवलदार से सैनिक बना दिया गया था। जिस कारण इन्होंने सेना को छोड़ने का मन बना लिया।

इसी दौरान चन्द्र सिंह महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये। बटालियन समेत 1920 में बजीरिस्तान भेजा गया। 1930 को वीर चंद्र सिंह को पेशावर भेज दिया गया। 23 अप्रैल 1930 को दुनिया से वीर चंद्र सिंह की असल पहचान हुई। 1930 में चन्द्र सिंह गढ़वाली को 14 साल के कारावास के लिये ऐबटाबाद की जेल में भेज दिया गया। 11 साल के कारावास के बाद इन्हें 26 सितम्बर 1941 को आजाद कर दिया।

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