यहां गढ़वाली भाषा के मुरीद हुए विदेशी पर्यटक
विदेशी पर्यटक उत्तरकाशी जिले की असी गंगा घाटी में गढ़वाली बोलना लिखना भी सीख रहे
उत्तरकाशी : एक ओर हम राष्ट्रभाषा हिंदी को छोड़कर ए-बी-सी-डी के फेर में उलझे हुए हैं, वहीं विदेशी पर्यटक गंगा-यमुना के मायके उत्तरकाशी आकर तन्मयता से हिंदी वर्णमाला सीख रहे हैं। उनसे बातचीत करने में स्थानीय ग्रामीणों को परेशानी न हो, इसके लिए विदेशी पर्यटक उत्तरकाशी जिले की असी गंगा घाटी में हिंदी और गढ़वाली सीखकर उसे अपनी दिनचर्या में शामिल कर रहे हैं। लगातार आने वाले कई विदेशी तो पूरी तरह पहाड़ के रंग में भी रंग गए हैं।
जिला मुख्यालय उत्तरकाशी से करीब 15 किमी दूर असी गंगा घाटी में स्थित है संगम चट्टी। यहां से करीब पांच किमी की पैदल चढ़ाई पर अगोड़ा गांव पड़ता है, जहां वर्षभर विदेशी पर्यटकों की चहलकदमी बनी रहती है। यहां ग्रामीण विदेशी पर्यटकों को होम स्टे के माध्यम से रात्रि विश्राम कराते हैं।
इसी से उनकी आजीविका भी चलती है। लेकिन, कई विदेशी पर्यटकों को भाषायी दिक्कतों के चलते ग्रामीणों के साथ तालमेल बैठाने में परेशानी होती है। इसके लिए एक ओर जहां ग्रामीण अंग्रेजी सीखते हैं, वहीं विदेशी पर्यटक हिंदी और गढ़वाली। आलम यह है कि एक-दूसरे का पूरक होने के बावजूद जहां ग्रामीण फर्राटेदार अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं, वहीं विदेशी शालीनता भरी हिंदी और गढ़वाली का।
अगोड़ा निवासी सुमन सिंह पंवार व संजय सिंह पंवार बताते हैं कि अमेरिका के न्यूयार्क निवासी जेसन वर्ष 2012 से लगातार अगोड़ा आ रहे हैं। बीते छह वर्षों में वह करीब 25 बार अगोड़ा आ चुके हैं। स्थानीय लोगों के साथ भाषायी कठिनाई के कारण उन्होंने शुरुआती दौर में हिंदी भाषा सीखनी शुरू कर दी थी। अब तो वह फर्राटेदार हिंदी ही नहीं, गढ़वाली भी बोलने लगे हैं।
बताते हैं कि अगोड़ा से डोडीताल के लिए ट्रैकिंग रूट जाता है। इसलिए बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटक यहां होम स्टे करते हैं। यहां रुकने के दौरान वह स्थानीय लोगों से हिंदी और गढ़वाली बोलना ही नहीं, लिखना भी सीखते हैं। 28-वर्षीय जेसन उन्हीं में से एक हैं। वह यहां आकर फिसिंग पर रिसर्च करते हैं।
इसी तरह अमेरिका के न्यूयार्क निवासी ऐरन व ऐंडी और वर्जीनिया निवासी पीटर भी पिछले सात साल से लगातार हिमालय भ्रमण पर आ रहे हैं। वह अगोड़ा में सुमन सिंह पंवार के घर पर ही होम स्टे करते हैं। सुमन बताते हैं, अब लगता ही नहीं कि ये लोग विदेशी हैं। पहले तो ये हिंदी में ही बातचीत करते थे, लेकिन अब गढ़वाली बहुत अच्छी बोलने लगे हैं। ये लोग हमारे साथ रोजमर्रा के काम भी करते हैं और खाने में ठेठ पहाड़ी व्यजंन ही लेते हैं।