उत्तराखंड

उत्तराखंड उदय नौ नवंबर 2000 से लेकर अब तक राज्य में राजनीतिक अस्थिरता..

उत्तराखंड उदय नौ नवंबर 2000 से लेकर अब तक राज्य में राजनीतिक अस्थिरता…

उत्तराखंड : नौ नवंबर 2000 को 27वें राज्य के रूप में वजूद में आए उत्तराखंड (तब उत्तरांचल) को पहली अंतरिम सरकार बनाने का मौका मिला था। तब से अब तक 11वां मुख्यमंत्री राज्य को मिलने जा रहा है। राजनीतिक हलकों के अलावा आम लोगों के बीच राजनीतिक अस्थिरता का मुद्दा राज्य के उदय के साथ ही इससे जुड़ गया था। ऐसी क्या वजहें रहीं कि पूर्व मुख्यमंत्री एनडी तिवारी को छोड़कर एक भी ऐसा मुख्यमंत्री ऐसा नहीं मिला, जो पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा कर पाया हो।

शुरूआत में नित्यानंद स्वामी को अंतरिम सरकार की कमान सौंपी गई थी। तभी से राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण बन गया था। भाजपा में उपजे अंतरविरोध के कारण स्वामी अपना एक साल का भी कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए। बावजूद इसके उनकी स्वच्छ छवी का तोड़ भाजपा नहीं ढूंढ पाई। फिर सत्ता भगत सिंह कोश्यारी को सौंपी गई, लेकिन वे चुनाव में भाजपा की वापसी नहीं करा पाए। इस चुनाव में कांग्रेस ने प्रदेश अध्यक्ष हरीश रावत के नेतृत्व में 36 सीटें जीतीं, लेकिन कमान एनडी तिवारी को सौंप दी गई।

 

तिवारी ने तमाम अंतरविरोध के बावजूद पांच साल सरकार चलाई। इसके बाद वर्ष 2007 के विस चुनाव में भाजपा ने 35 सीटों के साथ पुन: वापसी की और बीसी खंडूड़ी को कमान सौंपी गई। लेकिन यहां फिर अंतरविरोध की राजनीति शरू हो गई। पार्टी नेताओं के बीच उपजी खेमेबाजी और कई ध्रुवों की राजनीति ने पार्टी के भीतर असंतोष पैदा कर दिया। वर्ष 2009 में लोकसभा की पांचों सीटें गंवाना भी खंडूड़ी की विदाई की बड़ी वजह बना।

इसके बाद वर्ष 2012 में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा को 31 तो कांग्रेस को 32 सीटें मिलीं। तत्कालीन मुख्यमंत्री खंडूड़ी कोटद्वार से खुद अपनी सीट हार गए। कांग्रेस ने बसपा, उत्तराखंड क्रांति दल और निर्दलीय विधायकों की मदद से सरकार बनाई और विजय बहुगुणा मुख्यमंत्री बने। इसके बाद वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद अचानक से बहुगुणा सवालों के घेरे में आ गए। उनके विरोधियों को बैठे-बिठाए मुद्दा हाथ लग गया। वर्ष 2014 आते-आते कांग्रेस का अंतरविरोध बहुगुणा को भी ले डूबा और उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवानी पड़ी।

 

इसके बाद लंबे समय से सीएम की कुर्सी की राह ताक रहे हरीश रावत को आखिर मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली। मार्च 2016 में विजय बहुगुणा के नेतृत्व में नौ विधायकों ने कांग्रेस को झटका देते भाजपा का दामन थाम लिया तो रावत सरकार फिर संकट में आ गई। राष्ट्रपति शासन लगा, लेकिन फिर न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद रावत सरकार बचाने में कामयाब रहे।

इसके बाद हरीश रावत के नेतृत्व में वर्ष 2017 में कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी और वो 11 सीटों पर सिमट गई। रावत स्वयं दो सीटों से चुनाव लड़े, मगर दोनों जगह हार गए। भाजपा ने 70 में से 57 सीटों पर कब्जा किया। कमान त्रिवेंद्र सिंह रावत को सौंपी गई। कुछ ही महीनों पहले त्रिवेंद्र की भी विदाई हो गई।

 

त्रिवेंद्र से उनकी विदाई पर सवाल पूछे गए तो उन्हेेंने जवाब जानने के लिए दिल्ली की ओर इशारा कर दिया। वजहें जो भी रहीं हों, लेकिन बहुत से लोग आज भी त्रिवेंद्र की विदाई का कराण नहीं समझ पाए। ताजा-ताजा विदाई तीरथ सिंह रावत की हुई है। इनके भी तमाम वजहें गिनाईं जा रही हैं, लेकिन जनता अब भी यही जानना चाहती है, कि इस तरह मुख्यमंत्रियों की विदाई क्यों? राज्य की जनता स्थायित्व चाहती है। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि जब तक पार्टियों की कमान दिल्ली में रहेगी, ऐसा होना मुश्किल है।

भाजपा ने किया शर्मसार फैलाई अराजकता : कांग्रेस

उत्तराखंड में मचे सियासी घमासान के बीच प्रदेश कांग्रेस के दिग्गज नेताओं ने दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस कर अपनी बात रखी। पार्टी नेताओं ने जहां प्रदेश भाजपा की खिंचाई की, वहीं केंद्रीय नेतृत्व पर राज्य में राजनीतिक अस्थिरता फैलाने का आरोप लगाया। प्रेस कांफ्रेंस में पार्टी प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव, प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह, जबकि एआईसीसी के महासचिव रणदीप सिंह सुरजेवाल और हरीश रावत वर्चुअल रूप से उपस्थित हुए।

इस दौरान राष्ट्रीय महासचिव रणदीप सिंह सुरजेवाला ने कहा कि उत्तराखंड की देवभूमि ने देश को हमेशा संस्कृति और संस्कारों का पाठ पढ़ाया है। लेकिन इसी देवभूमि में भाजपा ने प्रचंड बहुमत के बावजूद राजनीतिक अस्थिरता फैलाने का काम किया है। भाजपा ने साढ़े चार साल के शासन में उत्तराखंड को एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया, जहां भाजपा का काम केवल मलाई की बंदर बांट करना है। पार्टी प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह ने कहा कि पूर्व मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने 10 मार्च को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी।

 

सांविधानिक व्यवस्थाएं हैं कि अगर कोई व्यक्ति सदन का सदस्य नहीं है और वह मुख्यमंत्री पद की शपथ लेता है तो छह माह के अंदर उसको सदन का सदस्य निर्वाचित होना होगा। पूर्व मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत को एक मौका मिला था कि सल्ट विधानसभा चुनाव में वह चुनाव लड़कर सदन का सदस्य बन सकते थे। जिस सांविधानिक संकट का जिक्र भारतीय जनता पार्टी के लोग कर रहे हैं, उससे बचा जा सकता था। उन्होंने कहा कि भाजपा अब पूरी तरह से बेनकाब हो गई है। इस दौरान कांग्रेस नेता करन माहरा ने कहा कि 11 साल के कार्यकाल में आज तक भाजपा को ऐसा मुख्यमंत्री नहीं मिला, जो अपना कार्यकाल पूरा कर सका हो। कहा कि आज भाजपा में भूतपूर्व मुख्यमंत्रियों की लाइन लगी है, जो पार्टी को चिढ़ा रही है।

 

भाजपा का हाई ड्रामा, जनता का अपमान : हरीश रावत

पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने कहा कि इस पूरे प्रकरण में भाजपा का जो हाई ड्रामा चला, वह उत्तराखंड की जनता का अपमान है। वह वर्चुअल जुड़े थे। उन्होंने कहा कि भाजपा 2017 में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई थी। प्रधानमंत्री ने डबल इंजन की सरकार देने का वायदा किया था। कहा था कि डेवलपमेंट होगा, हम आपको डबल इंजन की सरकार देंगे, एक देहरादून में और एक दिल्ली में दोनों सरकारें बनीं, दोनों सरकारें अस्तित्व में भी हैं, लेकिन उत्तराखंड के हिस्से में दो भूतपूर्व मुख्यमंत्री और जुड़ गए और एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री होने की कगार पर आज चयनित हुआ है।

 

20 साल के राजनीतिक इतिहास में भाजपा राज्य को सातवां मुख्यमंत्री देने जा रही है। भाजपा ने  उत्तराखंड की किसी समस्या का समाधान नहीं किया। उन्होंने पलायन रोकने की बात कही थी, आज स्थिति यह है कि उत्तराखंड के अंदर, देश के अंदर सर्वाधिक बेरोजगारी है। शिक्षित बेरोजगारों का जो प्रतिशत है, वह लगातार बढ़ रहा है। गैर शिक्षित बेरोजगार भी हैं, उनका प्रतिशत भी लगातार बढ़ रहा है। विकास के काम ठप हैं। हाल ही जो कोरोना संक्रमण की टेस्टिंग का घोटाला हुआ, उसने उत्तराखंड के सीने पर एक दाग लगाया है।

उत्तराखंड पूरे देश में शर्मशार हुआ है। भाजपा ने केवल भूतपूर्व मुख्यमंत्रियों की लाइन लगाई है। त्रिवेन्द्र सिंह रावत को बहुत ही हास्यास्पद तरीके से हटाया। जो वित्तमंत्री भी थे, बजट भी पेश किया था। बजट पर चर्चा चल रही थी, बजट जिस दिन पारित होना था, उसी दिन भाजपा नेतृत्व ने उनको मुख्यमंत्री पद से हटाने का फैसला किया।

दिल्ली की तरफ मुंह और पहाड़ की तरफ पीठ नहीं होनी चाहिए : अनिल जोशी

पर्यावरणविद् और सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. अनिल प्रकाश जोशी का कहना है कि राजनीतिक दलों की सबसे पहली चुनौती राजनीतिक स्थिरता बनाए रखने की कोशिश होनी चाहिए। इसके न होने का मतलब लोगों के विश्वास पर चोट ही नहीं होती, बल्कि सब कुछ पीछे भी खिसक जाता है। ऐसे में लोग अपने को ठगा हुआ महसूस करते हैं।

 

उत्तराखंड अपने दो दशकों में 10 मुख्यमंत्री देख चुका है। 11वां सामने है। सभी पहाड़ से भी रहे पर अभी तक पहाड़ों के दिन नहीं फिर पाए। इसके मुख्य कारणों के पीछे मुख्यमंत्री का ध्यान पहाड़ को बचाने से ज्यादा कुर्सी बचाने में लगा रहा। दिल्ली की तरफ मुंह व पहाड़ की तरफ पीठ। अब कैसे कोई मुख्यमंत्री सेवा में समर्पित होता। राजनीतिक दलों को मुख्यमंत्रियों को स्वतंत्रता व कंपास दे देना चाहिए, ताकि उन्हें अपने दायित्वों के प्रति दिशाभ्रम न हो।

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