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तो आ रहे हो न रुपणी लगाने गाँव ?

अषाड़ की रोपणी !

पहाड़ के लोकजीवन और लोकसंस्कृति की सौंधी खुशबु। रोपणी से विदा होते कुमाऊँ के ‘हुडका बौल’
संजय चौहान!

पहाड़ के लोकजीवन मे अषाड़ महीने का सदियों से गहरा नाता रहा है। अषाड़ का महीना पहाड़ में धान की रोपाई अर्थात रोपणी लगाने का महीना होता है। रोपणी और पहाड़ एक दूसरे के पूरक हैं। रोपणी पहाड़ के लोकजीवन मे इस तरह से रची बसी है कि आज भी रोपणी बरबस ही लोगों के मन को बेहद भाती है। अषाड महीने का आगमन मानसून आने का भी सूचक माना जाता है। क्योंकि पहाड़ की खेती पूरी तरह से मौसम पर निर्भर होती है और जब बारिश आयेगी तभी रोपणी लगती है। रोपणी प्रकृति और अपनी माटी के प्रति लोगो के प्रेम को भी दर्शाती है।

ऐसी लगती है रोपणी!

रोपणी लगाने से एक रात पहले खेत को नहरो/कूलों के द्वारा पानी से भरा जाता है, जिससे सूखी मिट्टी गीली हो जाती है और फिर रोपाई के लिए खेत तैयार हो जाता है। जिसके बाद बैलो के सहारे पूरे खेत में हल लगाकर खेत को धान की रोपाई के लिए तैयार किया जाता है। तत्पश्चात महिलाओं द्वारा खेत में धान की छोटी छोटी पौध को रोपा जाता है, जिसे रोपणी कहा जाता है।

सामूहिक सहभागिता का बेहतरीन उदाहरण!

पहाड़ के घर गांव में लगने वाली रोपणी सामूहिक सहभागिता का बेहतरीन उदाहरण है। जिसमें गांव के लोगों के खेतों में रोपाई के अलग-अलग दिन निर्धारित होते हैं। जिस दिन जिसके खेत में रोपाई लगानी होती है, गांव की सभी महिलाएं वहां पहुंचती हैं। इन महिलाओं के भोजन, चाय-पानी की व्यवस्था भू-स्वामी को करनी होती है। भोजन में लजीज पकवान और व्यंजन शामिल होते हैं। भोजन सर्वप्रथम ईष्ट देवता और पितृ देवता को चढ़ाया जाता है। रोपाई के बाद महिलाएं और बच्चे एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। सारा काम निपटने के बाद भू-स्वामी सभी लोगों की सहायता और आगम, आगमन के लिए उनका आभार व्यक्त करता है। एक एक करके पूरे अषाड में हर गाँव के लोगों की रोपणी लगाई जाती है जो सामूहिक सहभागिता का सबसे बेहतरीन उदाहरण है।

रोपणी के लिए परदेश से घर आते थे लोग!

रोपणी लगाने के लिए दूर परदेस में काम करने वाले लोग छुट्टी लेकर अपने खेतों में रोपाई के कार्यक्रम में भाग लेने पहुंचते थे। बेटी से लेकर बेटो को रोपणी की बडी चिंता रहती थी। पहाड़ मे रोपणी किसी लोकपर्व से कम नहीं होता है। रोपणी के जरिये गाँव के लोगों का एक दूसरे मिलन भी होता है। लेकिन धीरे धीरे लोग रोपणी से विमुख होते जा रहे है। अब बहुत कम लोग ही रोपणी के लिए घर आते हैं।

— रोपणी की खेतों से विलुप्त की कगार पर कुमाऊँ की रोपणी का ‘हुडका बौल‘—!!

बैमौसम बारिश और कम उपज होने से लोग खेती को छोड़ रहे है। लोगो के खेती से विमुख होने से रोपणी के समय गाये जाने वाले कुमाऊँ की लोकसंस्कृति ‘हुडका बौल’ विधा पर भी संकट गहराने लगा है। इस परंपरा में एक लोक कलाकार हुड़का बजाते हुए लोक गाथाएं आदि का वर्णन करता था। लोक गाथाएं सुनते हुए रोपाई करने वाली महिलाओं को थकान का आभास भी नहीं होता था। लेकिन पिछले कुछ सालों से हुड़कियाबौल की परंपरा कम ही दिखाई देती है। कतिपय स्थानों को छोड़कर हुड़कियाबौल का आयोजन विलुप्त होने के कगार पर जा पहुंचा है।

वास्तव मे देखा जाय तो अषाड महीने में लगने वाली पहाड़ की रोपणी यहाँ के लोकजीवन का अभिन्न अंग तो रही है साथ ही लोकसंस्कृति की सौंधी खुशबू भी बिखेरती है। तभी तो इस पर पहाड़ के लोक में एक कहावत प्रचलित है।

आषाढ़ की रोपणी भादो कु घाम,
सौण की बरखा अशूज कु काम,
ह्युन्द की मैना की लम्बी लम्बी रात,
आहा कन छा आपडा गौं की बात,

…………. तो फिर आप आ रहे हो न इस बार रूपणी लगाने अपने गाँव –!

 

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