उत्तराखंड

यहां एक माह बाद मनाई जाती हैं दीपावली..

यहां एक माह बाद मनाई जाती हैं दीपावली..

यहां एक माह बाद मनाई जाती हैं दीपावली..

उत्तराखंड : पूरे देश में जहां कार्तिक शुक्ल पक्ष की अमावस्या को दीवाली मनाने का प्रचलन है। वहीं, उत्तराखंड के सुदूर में बसे जौनसार बावर क्षेत्र के कई गांवों में आज भी कार्तिक शुल्क पक्ष की अमावस्या के ठीक एक माह दिवाली का जश्न मनाया जाता है। । पुरातन संस्कृति को संजोए इस त्योहार में आज भी आत्मीयता काफी हद तक कायम है।यहां पांच दिन तक ईको फ्रेंडली दीपावली का जश्न रहता है। इस दिवाली में पटाखों का शोरशराबा और आतिशबाजी का धुआं नहीं होता।

इस त्योहार में मेहमानों को विशेष व्यंजन चिउड़ा और मीठी रोटी गुड़ोई परोसी जाती है। इस दिवाली को क्षेत्र में कई जगहों पर बूढ़ दवैली, बूढ़ी दिआऊड़ी, दयाउली कहा जाता है। इस पारंपरिक आयोजन से जुड़ी किवदंतियां महाभारत व रामायण युग से जुड़ी बताई जाती हैं। इस दिवाली में हिस्सा लेने के लिए दूरदराज में बसे लोग भी अपने गांव में लौटते हैं।

 

जौनसार बावर जनजातीय क्षेत्र में एक माह बाद बूढ़ी दीपावली का जश्‍न मनाया जाता है, जिसे पहले दिन गांव से कुछ दूर पर परंपरा के अनुसार पतली लकड़ियों को ढेर बनाया जाता है, जबकि रात को भीमल की लकड़ियों की मशाल तैयार की जाती है। रात के समय सारे पुरुष होला को जलाकर ढोल दमाऊ के साथ नाचते-गाते हुए मशाल जलाते हैं, जिसके बाद दीपावली के गीत गाते हुए वापस गांव आते हैं, जबकि दूसरे दिन गांव के पंचायती आंगन में अलाव जला दिया जाता है।

देशभर में अनूठी संस्कृति और परंपराओं के लिए विख्यात जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर में बूढ़ी दीपावली मनाने की परंपरा बरकरार है। यहां पर देश की दीपावली के एक माह बाद दीपावली मनाने की परंपरा है। यहां पांच दिन तक ईको फ्रेंडली दीपावली का जश्न रहता है। इस जश्‍न में न पटाखों का शोर रहता है और न ही अनावश्यक खर्च। भीमल की लकड़ी की मशाल जलाकर यह जश्न मनाया जाता है। तीन सौ से अधिक राजस्व गांवों और खेड़े मजरों के पंचायती आंगनों में ग्रामीण महिलाएं और पुरुष सामूहिक नृत्य से लोक संस्कृति की छटा बिखेरते हैं।

 

एक माह बाद होता है दीपावली का जश्‍न..

जौनसार बावर जनजातीय क्षेत्र में एक माह बाद बूढ़ी दीपावली का जश्‍न मनाया जाता है, जिसे पहले दिन गांव से कुछ दूर पर परंपरा के अनुसार पतली लकड़ियों को ढेर बनाया जाता है, जबकि रात को भीमल की लकड़ियों की मशाल तैयार की जाती है। रात के समय सारे पुरुष होला को जलाकर ढोल दमाऊ के साथ नाचते-गाते हुए मशाल जलाते हैं, जिसके बाद दीपावली के गीत गाते हुए वापस गांव आते हैं, जबकि दूसरे दिन गांव के पंचायती आंगन में अलाव जला दिया जाता है।

ऐसे मनाई जाती है यह दीवाली

पांच दिन तक चलने वाली इस दीवाली के पहले दिन सुबह के समय नादरीदियावी पर्व मनाया जाता है। इस पर्व पर छोटे बच्चे भिमल की लकड़ी लेकर होल्लारे जलाते हैं। जिसके बाद शाम के समय औंस पर्व मनाया जाता है। जिसमें बड़े बुजुर्ग भी होल्लारे लेकर नाचते हैं। गांव स्थित थारी (देव स्थान) की पूजा होती है। दूसरे दिन भिरुड़ी पर्व मनाया जाता है।

 

एक माह बाद दिवाली मनाने के कई हैं तर्क..

जौनसार बावर क्षेत्र में बूढ़ी दीपावली मनाने के कई तर्क हैं। हजारों साल से जौनसार बावर में दीपावाली के एक माह बाद दीपावली मनाई जा रही है। कुछ लोगों का कहना है कि लंका फतह करने के बाद जब राम अयोध्या वापस लौटे तो क्षेत्र के लोगों तक यह समाचार एक माह बाद पहुंच सका। जिस पर एक माह बाद यहां पर दीपावली का जश्न मनाया गया। कुछ लोगों का कहना है कि पूर्व में जौनसार बावर क्षेत्र सिरमौर राजा के अधीन था। उस समय राजा की पुत्री दीपावली के दिन मर गई थी। इसके चलते पूरे राज्य में एक माह का शोक मनाया गया था। उसके ठीक एक माह बाद लोगों ने उसी दिन दीपावली मनाई थी। कुछ लोगों का तर्क है कि दीपावली के समय क्षेत्र में फसलों की कटाई का काम पूरे जोर पर होता है। ऐसे में इस समय लोगों के पास त्योहार की तैयारी और उसे मनाने का समय नहीं मिल पाता। ऐसे में ठीक एक माह बाद फसल कटाई का काम पूरा होने के बाद क्षेत्र में दीपावली का पर्व मनाया जाता है।

 

भिरुड़ी मनाने की परंपरा..

लोग पंचायती आंगन में आकर भिरुड़ी मनाने की तैयारी में जुट जाते हैं। भिरुड़ी बूढी दीपावली का खास अवसर होता है, जब हर घर के लोग पंचायती आंगन में अपने ईष्ठ देवता के नाम के अखरोट एकत्र करते हैं। साथ ही दि‍वाली के गीत गाते हैं। गीत के बाद पंचायती आंगन में गांव का मुखिया अखरोट बिखेरता है। प्रसाद रूप में फेंके गए अखरोट को पाने को ग्रामीण अपनी क्षमता अनुसार उठाते हैं।

सामूहिक रूप से लोक नृत्य की परंपरा..

पंचायती आंगन में महिलाएं सामूहिक रूप से हारुल, झेंता, रासो और नाटी पर परंपरागत लोक नृत्य प्रस्तुत करती हैं। सबसे खास बात यह है कि यहां पर आयोजन में महिला हो या पुरुष अपने परंपरागत परिधान ही पहनते हैं और मैदानी इलाकों की तरह पर्व को अलग अलग न मनाकर सामूहिक रूप से मनाते हैं।

 

इस दिवाली का खास व्‍यंजन है चिवड़ा..

चिवड़ा दीपावली का खास व्यंजन है। इसे तैयार करने के लिए पहले धान को भिगोया जाता है। बाद में इसे भूनकर ओखली में कूटा जाता है, जिससे चावला पतला हो जाता है और भूसा अलग करने के बाद चिवड़ा तैयार हो जाता है। चिवड़ा को स्थानीय लोग बड़े चाव से खाते हैं। जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर में अतिथि देवो भव: की परंपरा का निर्वाह करते हुए मेहमान की भी खूब मेहमाननवाजी होती है।

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