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बहुत नाकामियों पर आप नाज़ करते हैं, अभी देखी कहां हैं नाकामियां मेरी

अक्सर कॉलेज में पहुंचकर नौजवानों की दूसरी महबूबा शराब होती है। जब जावेद अख़्तर कॉलेज के दिनों में अपने दोस्त के साथ शराब पीते तो उनका दोस्त शराब पीकर उन्हें देश के विभाजन के दौरान हुए दंगों के क़िस्से सुनाता। इसी तरह के एक क़िस्से का जावेद अख़्तर ने अपनी किताब तरकश में ज़िक्र किया है।

अपनी शराब पीने की आदत का जिक्र वह बहुत ही बेबाकी से लिखते हैं “कॉलेज का यह कमरा भी जाता रहा। अब मैं मुश्ताक सिंह के साथ हूं। मुश्ताक सिंह नौकरी करता है और पढ़ता है। वो कॉलेज की उर्दू एसोसिएशन का सद्र है। मैं बहुत अच्छी उर्दू जानता हूं। वो मुझसे भी बेहतर जानता है। मुझे अनगिनत शेर याद हैं। उसे मुझसे ज़्यादा याद हैं। मैं अपने घर वालों से अलग हूं। उसके घर वाले हैं ही नहीं।

………..देखिए हर काम में वो मुझसे बेहतर है। साल भर से वो मुझसे दोस्ती खाने कपडे़ पर निभा रहा है यानी खाना भी वही खिलाता है और कपडे़ भी वही सिलवाता है। पक्का सरदार है। लेकिन मेरे लिए सिगरेट ख़रीदना उसकी जिम्मेदारी है।

अब मैं कभी कभी शराब भी पीने लगा हूं – हम दोनों रात को बैठे शराब पी रहे हैं – वो मुझे पार्टीशन और उस जमाने के दंगों के क़िस्से सुना रहा है – वो बहुत छोटा था लेकिन उसे याद है – कैसे दिल्ली के करोल बाग़ में दो मुसलमान लड़कियों को जलते हुए तारकोल के ड्रम में डाल दिया गया था और कैसे एक मुसलमान लड़के को मैं कहता हूं, मुश्ताक सिंह। तू क्या चाहता है जो एक घंटे से मुझे ऐसे क़िस्से सुना सुनाकर मुस्लिम लीगी बनाने की कोशिश कर रहा है – ज़ुल्म की ये ताली तो दोनों हाथों से बजी थी, अब जरा दूसरी तरफ़ की भी तो कोई वारदात सुना।”

मुश्ताक सिंह हंसने लगता है चलो सुना देता हूं जग बीती सुनाऊं या आपबीती, मैं कहता हूं आप बीती और वो जवाब देता है, “मेरा ग्यारह आदमियों का ख़ानदान था – दस मेरी आंखों के सामने क़त्ल किए गए हैं।

मुश्ताक सिंह को उर्दू के बहुत से शेर याद हैं। मैं मुश्ताक सिंह के कमरे में एक साल से रहता हूं। बस एक बात समझ में नहीं आती – “मुश्ताक सिंह तुझे उन लोगों ने क्यों छोड़ दिया ? तेरे जैसे भले लोग चाहे किसी जात किसी मज़हब में पैदा हों, हमेशा सूली पर चढ़ाये जाते हैं – तू कैसे बच गया? आजकल वो ग्लासगो में हैं। जब हम दोनों अलग हो रहे थे तो मैंने उसका कड़ा उससे लेकर पहन लिया था और वह आज तक मेरे हाथ में है और जब भी उसके बारे में सोचता हूं ऐसा लगता है कि वो मेरे सामने है और कह रहा है –

बहुत नाकामियों पर आप अपनी नाज़ करते हैं
अभी देखी कहां है, आपने नाकामियां मेरी

शहर बंबई- किरदार फ़िल्म इंडस्ट्री, दोस्त, दुश्मन और मैं 4 अक्टूबर 1964 को बम्बई सेंट्रल स्टेशन पर उतरा हूं। अब इस अदालत में मेरी ज़िंदगी का फैसला होना है। बम्बई आने के छह दिन बाद बाप का घर छोड़ना पड़ता है। जेब में सत्ताईस नए पैसे हैं। मैं ख़ुश हूं कि जिंदगी में कभी अट्ठाईस नए पैसे भी जेब में आ गए तो मैं फ़ायदे में रहूंगा और दुनिया घाटे में।

बम्बई में दो बरस होने को आए, न रहने का ठिकाना है न खाने का। यूं तो एक छोटी सी फ़िल्म में सौ रूपये महीने पर डॉयलॉग लिख चुका हूं। कभी-कहीं असिस्टेंट हो जाता हूं, कभी एकाध छोटा-मोटा काम मिल जाता है, अक्सर वो भी नहीं मिलता। दादर एक प्रोडयूसर के ऑफिस अपने पैसे मांगने आया हूं, जिसने मुझसे अपनी पिक्चर के कॉमेडी सीन लिखवाए थे। ये सीन उस मशहूर राइटर के नाम से ही फ़िल्म में आएंगे जो ये फ़िल्म लिख रहा है।

ऑफिस बंद है। वापस बांद्रा जाना है जो काफ़ी दूर है। पैसे बस इतने हैं कि या तो बस का टिकट ले लूं या कुछ खा लूं, मगर फिर पैदल वापस जाना पडे़गा। चने ख़रीदकर जेब में भरता हूं और पैदल सफर शुरू करता हूं। कोहेनूर मिल्स के गेट के सामने से गुज़रते हुए सोचता हूं कि शायद सब बदल जाए लेकिन यह गेट तो रहेगा। एक दिन इसी के सामने से अपनी कार से गुजरूंगा।

एक फिल्म में डॉयलॉग लिखने का काम मिला है। कुछ सीन लिखकर डायरेक्टर के घर जाता हूं। वो बैठा नाश्ते में अनानास खा रहा है, सीन लेकर पढ़ता है और सारे कागज मेरे मुंह पर फेंक देता है और फिल्म से निकालते हुए मुझे बताता है कि मैं ज़िंदगी में कभी राइटर नहीं बन सकता। तपती धूप में एक सड़क पर चलते हुए मैं अपनी आंख के कोने में आया एक आंसू पोछता हूं और सोचता हूं कि मैं एक दिन इस डायरेक्टर को दिखाऊंगा कि मैं फिर जाने क्यों ख्याल आता है कि क्या ये डायरेक्टर नाश्ते में रोज अनानास खाता होगा।

(जावेद अख्तर की किताब तरकश का एक अंश)

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